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Wednesday, March 10, 2010

मन का फंदा

हर मनुष्य अपने विचारों में डूबा रहता है। कभी ऐसा भी होता है कि विचारों को ही मनुष्य यथार्थ समझ लेता है। विचार जिस घटना के बारे में हों यह आवश्यक नहीं कि वह घटना वर्तमान से कुछ सम्बन्ध रखती हो। यह भी होता है कि घटना केवल कल्पना की उडान ही हो। ऐसी स्थिति में जब मनुष्य उस घटना पर प्रतिक्रिया स्वरुप भावावेग से ग्रस्त हो जाता है। यह विचारों और भावनाओं का कन्फ्यूजन है। जब व्यक्ति शब्दों को उनके अर्थ से अधिक महत्त्व देता है तो इसका मतलब है कि वह शब्दों के मायाजाल में उलझ रहा है। शब्द और उसके फलस्वरूप होने वाली शारीरिक प्रतिक्रियाएं अलग अलग हैं। कल्पना करें कि एक विचार है कि 'आपकी कार का एक्सिडेंट हो गया है'। तुरंत ही मन अपनी प्रतिक्रिया चालू कर देगा। डर के बारे में पसीना निकल सकता है। धड़कन तेज़ हो सकती है या सांस फूल सकती है। परन्तु एक्सिडेंट तो एक कल्पना है। आपके मन ने उसे वास्तविक मान कर प्रतिक्रिया कर दी। विचार को विचार ही रहने दिया जाये और घटना को घटना तभी सही कार्य हो सकेंगे।

यहाँ पर मन विचारों को तथ्यों से ज्यादा महत्व दे रहा है। इसकी वजह से आप किंकर्तव्यमूढ़ हो सकते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति मानसिक छवि को छवि, विचार को विचार, संवेदनाओं को संवेदना ही रहने दे। न उससे कुछ कम न अधिक। मन हमेशा ही आपका सच्चा मित्र नहीं रहता है। विशेष रूप से जब मन बेलगाम घोड़े कि तरह छवि, विचार और संवेदना को एक दूसरे में गड्ड मड्ड कर देता है। और व्यक्ति इस चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पाता।

तो क्या चिंता वास्तविक नहीं है। विचार वास्तविक हो, आपके शरीर में होने वाले परिवर्तन जैसे कि हाथ पैर कंपना, धडकन, या पसीना भी वास्तविक हैं। परन्तु उनका अनुभव अलग अलग करना होगा। विचार को विचार रहने दें, शारीरिक परिवर्तनों को शारीरिक परिवर्तन, दोनों का आपस में यदि कंफ्यूजन न किया जाये तो समस्या नहीं होगी।

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